सोमवार, 15 सितंबर 2008

हिन्दी का हाल और हम

मित्रो !
बहुत दिनों से मैंने अपने ब्लाग पर कोई विचार नहीं डाला इसका मुझे खेद है
दरअसल मै अपने एम.फिल. के शोध में व्यस्त बहुत जल्द अपने इस शोध की मुख्य बातों को भी ब्लाग पर प्रकाशित करूँगा
हिन्दी दिवस को लेकर पिछले कुछ सालों से जमकर बहसें हो रही हैं और खुब सरकारी पैसों का दुरुपयोग हो रहा है, हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा कहते हुए हिन्दी के प्रख्यात विद्वजनों द्वारा हिन्दी को आगे बढाने के लिये कितने कार्य हुए हैं इसकी समीक्षा कि जाये तो शायद 2-5 प्रतिशत विद्वान ही होंगे, जिन्होंने वाकई कुछ ठोस कार्य किया है
साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने भी कहा है -जैसे 15 अगस्त को झंडा फहरा लेते हैं, दो अक्टूबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाते हैं, उसी तरह का यह भी एक आयोजन है जहाँ हिन्दी की याद लोगों को सिर्फ़ हिन्दी दिवस या इस दौरान होने वाले कार्यक्रमों में ही आती है, बाकी 364 दिन लोग हिन्दी को भूले रहते हैं और इस बारे में बात भी नहीं करते हैं जिस तरह अब राष्ट्रीय पर्वों के आयोजनों में जनता की कोई शिरकत नहीं होती, बस नेता, मंत्री और स्कूलों से लाए गए बच्चे होते हैं, वैसे ही अब सरकारी हिन्दी दिवसों के आयोजनों में भी हो रहा है.लोग आपस में अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए या ये बताने के लिए कि वो कितने महत्वपूर्ण हैं, इस तरह का आयोजन करते हैं. साल भर हिन्दी पर कोई काम हो या न हो, यह आयोजन ज़रूर हो जाता है.
आज की
हिन्दी जो जीवंत हिन्दी है, वो आज से नहीं, सैकड़ों सालों से बाज़ार में बनी हुई है.
परिवारों में, लोगों में और समाज में हिन्दी का बाज़ार तमाम चुनौतियों के बावजूद हिन्दी को जीवित और जीवंत बनाए हुए है. जाने माने विद्वान सुधीश पचोरी भी हिन्दी के नये रूप का समर्थन करते हैं
मीडिया और फ़िल्मों का इसमें बड़ा योगदान है. भाषा में निरंतर परिवर्तन हो रहा है और होते रहना चाहिए. किसी भी भाषा को बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी होता है.
इसी तरह की बहुत सारी बातों को आज के संदर्भ में देखा जाए तो हिन्दी के इस हाल के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम भी हैं जो अपनी हिन्दी को भाव न देकर इंग्लिश या अन्य भाषा को महत्व देते हैं, क्योंकि हमे लगता है कि हम माडर्न तभी कहलायेंगे जब हम हिन्दी के साथ-साथ इंग्लिश का भी प्रयोग करें लेकिन क्या यह इतना जरूरी है कि बिना कारण भी हम इसका प्रयोग करते रहें ठीक है कि कुछ मायने में आज कि स्थिति वैसी नहीं है परंतु हम चाह भी नहीं रहें हैं यह भी कहीं न कहीं सत्य है हमें चाहिए कि हम अपनी हिन्दी को संस्कार के साथ आगे बढाने में अपना योगदान करें

बीबीसी की अचला शर्मा कहती हैं-"जिस गंगा-जमुनी हिंदी के संस्कार मेरी घुट्टी में हैं, जिस हिंदी से मेरे बड़े होने, मेरे पढ़-लिख कर किसी क़ाबिल बनने, मेरे सपनों, मेरी यादों का संबंध है – वह हिंदी कहाँ है? " हिन्दी के अस्तित्व को बचाने के इच्छुक लोगों का एक वर्ग कहता है कि अगर हिन्दी में अँगरेज़ी के मेल को सहज स्वीकार न किया गया तो हिन्दी मर जाएगी. दूसरा पक्ष कहता है कि यह हिन्दी पर बलात्कार है और इससे हिन्दी की मौत निश्चित है. मेरा विचार है कि हिन्दी को अगर ज़िन्दा रहना है तो इन दोनों तरह के हिमायतियों से सावधान रहना होगा.

विमलेशकान्ति वर्मा ने भी कहा है-हिन्दी किसी एक भाषा का नाम नहीं है हिन्दी भाषा समष्टि का नाम है हिन्दी एक बैनर है, जिसमें उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में रायपुर और खण्डवा, पुर्व में भागलपुर और मिथिला से लेकर, पश्चिम में बाडमेर,बीकानेर और जैसलमेर तक आते हैं यह एक बहुत बडा क्षेत्र है इतने बडे क्षेत्र में जो भाषा बोली जाएगी उसमें वैकल्पिक प्रयोग होंगे ही होंगे