बुधवार, 10 अप्रैल 2013

भाषा के नजर में विज्ञापन




ग्लोबल विज्ञापनी युग में यह आम बात हो गई है कि हम कहीं भी जाएं चारो ओर विज्ञापनों का प्रभाव महसूस किया जा सकता है. इसी प्रभाव को लेकर एफ एंगेल्स ने दि इमेजेज ऑफ पावर में लिखा है कि “विज्ञापन की खूबी यह है कि वह भविष्य के सपनों को जगाता है और बार-बार पुनरावृति के द्वारा उन्हें सामाजिक विश्वास में बदल देता है.” भविष्य के सपनों को जगाने में विज्ञापन को आकर्षक बनाने के लिए सबसे अधिक ध्यान दृश्य और भाषा पर दिया जाता है और इसका प्रभाव किसी से छिपा नहीं है. यह प्रभाव खासकर भाषा का प्रभाव अब सिर्फ किसी उत्पाद तक सीमित नहीं रह गया है. किसी भी समूह के बीच बात-व्यवहार के दौरान विज्ञापनों की ही तरह की भाषा का प्रयोग,  एक आम बात है. ऐसा भी नहीं है कि इस तरह का प्रभाव अभी ही देखने को मिल रहा है बल्कि देखा जाए तो यह बहुत पहले से मौजूद रहा है. कुछ दिनों पहले आगरा से प्रकाशित गवेषणा संचयन में राम विलास शर्मा के एक लेख साहित्य का जातीय रूप में साहित्य में भी भाषा के प्रभाव को लेकर चर्चा की गई है, जिसमें कहा गया है कि जब छायावादी साहित्य का आंदोलन विकास पर था तो उस समय हमारे साहित्य के अंदर बहुत से ऐसे लोग थे जो यह कहते थे कि बंगालियों के प्रभाव से ऐसा साहित्य रचा जा रहा है कि मानो यह  बंगालियों का जूठन लग रहा है. जब बंगाली का प्रभाव हिंदी पर पड़ रहा था तो इसे उस समय भारतीय भाषा होते हुए भी,  बाह्य प्रभाव माना गया था. जबकि हिंदी के बारे में आम राय रही है कि इसमें शुरू से ही अन्यतर भाषाओं का प्रभाव रहा है चाहे वह देशज रूप में हो या तत्सम रूप में.
भाषा चाहे व्यक्ति या समाज की पहचान बने या संप्रेषण के माध्यम के रूप में पहचानी जाए या सांस्कृतिक अथवा आर्थिक आदान-प्रदान का माध्यम बने, उसकी अपनी एक अलग पहचान बनती ही है. आज जब पूरी दुनिया के देश एक-दूसरे के करीब आ रहे हैं, अपने उत्पाद, संस्कृति आदि को एक-दूसरे से साझा कर रहे हैं तो जाहिर है कि आपसी समझ के लिए भाषा को ही माध्यम बनाएंगे और इस स्थिति में भाषा पर प्रभाव पड़ना लाजिमी  भी है. मौजूदा संदर्भ में जब अंतरराष्ट्रीय बाजार और सहयोग अपने विकसित रूप में है नतीजन अनेक देशों पर अंतरराष्ट्रीय प्रभाव पड़ेगा. भारत एक बहुभाषी देश है, हिंदी यहाँ की सबसे बड़ी संपर्क भाषा के रूप में जानी जाती है और इसे व्यापार के लिए भी उपयुक्त समझा जाता है. नई सदी के उदारवादी अर्थव्यवस्था में जहाँ व्यापार मुख्य अवयव होता जा रहा है, लगभग भाषाई और सामाजिक संदर्भ गौण होते जा रहे हैं.  फिर भी किसी उत्पाद के विज्ञापन के लिए भाषा ही मुख्य आधार तत्व होता है. विज्ञापनदाता, जिन्हें भाषा से सिर्फ व्यापारिक मतलब होता है इसके व्याकरण या समाजपर पड़ने वाले असर से नहीं; अपने उत्पाद की गुणवत्ता और अंतरराष्ट्रीयता बताने के लिए भाषा के साथ प्रयोग करते रहते हैं. विज्ञापन की चर्चा के साथ उत्पाद और इसकी भाषा भी चर्चित होती जाती है और बार- बार की पुनरावृति सामाजिक निष्ठा में तब्दील हो जाती है. इस तरह से भाषा में बदलाव होता रहता है और यह कब सामान्य वैचारिक संप्रेषण का हिस्सा बन जाता है हमें पता ही नहीं चल पाता. विज्ञापन या अंतरराष्ट्रीय व्यापार के संदर्भ में एक अच्छे उदाहरण के रूप में जापान को लिया जा सकता है जहाँ भाषा को लेकर काफी गंभीरता से नियम बनाए गए हैं. जापानी भाषा में मूल जापानी शब्दों को हीरागाना लिपि में, विदेशी मूल के शब्दों को कातकाना चीनी शब्दों (चित्राक्षर) को काँजी में तथा अंग्रेजी के शब्दों को रोमन में लिखते हैं. जापान में भाषा का यह मिला-जुला रूप राष्ट्रीय अस्मिता से जुड़ता है और व्यापार को अधिक गतिमान बनाता है. जापान के इस उदाहरण से भारत जैसे बहुभाषिक  देश को सिखना चाहिए.
मौजूदा लोकतात्रिक या अर्ध-पूंजीवादी व्यवस्था में कहा भी जाता है कि देश के विकास का सीधा संबंध उसकी अर्थव्यवस्था और राजनीति से होता है और इसे मजबूत करने के लिए भाषा एवं संस्कृति, उत्पाद के बाद मुख्य अवयव हो गए हैं. यह दिख भी रहा है कि भाषा चाहे कोई भी हो अर्थव्यवस्था की मजबूती और भाषाई राजनीति का हिस्सा मात्र हो गयी है. भाषा, व्यापार के लिए संदेशवाहक बरसाती नदी की तरह तेज गति से कार्य करती है, और अन्य भाषाओं के मिलने से दूषित भी होती है, लेकिन ठहरे जल की तरह सड़ांध नहीं पैदा करती. यह भी स्पष्ट हो चुका है कि सबसे बड़ी संपर्क भाषा विकासशील देशों के विकास में सहायक सिद्ध होती है. वर्तमान हिंदी भी भले ही इसमें अन्य भाषाओं के शब्द मिले हैं आर्थिक विकास के लिहाज से काफी मजबूती से संदेशवाहक नदी की तरह बह रही है और इसमें व्यापार और विज्ञापन की भी भूमिका काफी महत्वपूर्ण है. जिस प्रकार हिंदी में अन्य भाषिक संदर्भ जुड़ रहे हैं उसी प्रकार हिंदी भी उनके साथ जुड़ रही है जरूरत है सकारात्मक सोच के साथ इसके विकास पर कार्य करने की....

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पूर्वांचलीय भाषा, हिंदी और देवनागरी लिपी

देवनागरी लिपि की विशेषता


सर्वप्रथम हम देवनागरी के इतिहास पर एक नजर डालेंगे। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे। समूचे विश्व में प्रयुक्त होने वाली लिपियों में देवनागरी लिपि की विशेषता सबसे भिन्न है। अगर हम रोमन, उर्दू लिपि से इसका तुलनात्मक अध्ययन करें तो देवनागरी लिपि इन लिपियों से अधिक वैज्ञानिक है। रोमन और उर्दू लिपियों के स्वर-व्यंजन मिले-जुले रूप में रखे गए हैं, जैसे- अलिफ़, बे; ए, बी, सी, डी, ई, एफ आदि।
दोनों लिपियों की तुलना में देवनागरी में इस तरह की अव्यवस्था नहीं है, इसमें स्वर-व्यंजन अलग-अलग रखे गए हैं। स्वरों के हृस्व-दीर्घ युग्म साथ-साथ रहते हैं, जैसे- अ-आ, इ-ई, उ-ऊ। इन स्वरों के बाद संयुक्त स्वरों की बात करते हैं इनको भी इस लिपि में अलग से रखा जाता है, जैसे- ए,ऐ,ओ,औ,।
देवनागरी के व्यंजनों की विशेषता इस लिपि को और वैज्ञानिक बनाती है, जिसके फलस्वरूप क,च,ट,त,प, वर्ग के स्थान पर आधारित है और हर वर्ग के व्यंजन में घोषत्व का आधार भी सुस्पष्ट है, जैसे- पहले दो व्यंजन (च,छ) अघोष और शेष तीन व्यंजन (ज,झ,ञ) घोष होते हैं। देवनागरी व्यंजनों को हम प्राणत्व के आधार पर भी समझ सकते हैं, जैसे- प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन अल्पप्राण और द्वितीय और चतुर्थ व्यंजन महाप्राण होता है। इस तरह का वर्गीकरण और किसी और लिपि व्यवस्था में नहीं है।
देवनागरी की कुछ और महत्तवपूर्ण विशेषता निम्नवत् हैं -
1) लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुसार- इस लिपि में चिह्नों के द्योतक उसके ध्वनि के अनुसार ही होते हैं और इनका नाम भी उसी के अनुसार होता है जैसे- अ, आ, ओ, औ, क, ख आदि। किंतु रोमन लिपि चिह्न नाम में आई किसी भी ध्वनि का कार्य करती है, जैसे- भ्(अ) ब्(क) ल्(य) आदि। इसका एक कारण यह हो सकता है कि रोमन लिपि वर्णात्मक है और देवनागरी ध्वन्यात्मक।
2) लिपि चिह्नों की अधिकता - विश्व के किसी भी लिपि में इतने लिपि प्रतीक नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियाँ 40 के ऊपर है किंतु केवल 26 लिपि-चिह्नों से काम होता है। 'उर्दू में भी ख, घ, छ, ठ, ढ, ढ़, थ, ध, फ, भ आदि के लिए लिपि चिह्न नहीं है। इनको व्यक्त करने के लिए उर्दू में 'हे' से काम चलाते हैं' इस दृष्टि से ब्राह्मी से उत्पन्न होने वाली अन्य कई भारतीय भाषाओं में लिपियों की संख्याओं की कमी नहीं है। निष्कर्षत: लिपि चिह्नों की पर्याप्तता की दृष्टि से देवनागरी, रोमन और उर्दू से अधिक सम्पन्न हैं।
3) स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्न - देवनागरी में ह्स्व और दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग चिह्न उपलब्ध हैं और रोमन में एक ही (।) अक्षर से 'अ' और 'आ' दो स्वरों को दिखाया जाता है। देवनागरी के स्वरों में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
4) व्यंजनों की आक्षरिकता - इस लिपि के हर व्यंजन के साथ-साथ एक स्वर 'अ' का योग रहता है, जैसे- च्+अ= च, इस तरह किसी भी लिपि के अक्षर को तोड़ना आक्षरिकता कहलाता है। इस लिपि का यह एक अवगुण भी है किंतु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह विशेषता भी है, जैसे- देवनागरी लिपि में 'कमल' तीन वर्णों के संयोग से लिखा जाता है, जबकि रोमन में छ: वर्णों का प्रयोग किया जाता है!
5) सुपाठन एवं लेखन की दृष्टि- किसी भी लिपि के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण होता है कि उसे आसानी से पढ़ा और लिखा जा सके इस दृष्टि से देवनागरी लिपि अधिक वैज्ञानिक है। उर्दू की तरह नहीं, जिसमें जूता को जोता, जौता आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती अक्सर लोग करते हैं।
देवनागरी के दोष -
देवनागरी के चारों ओर से मात्राएं लगना और फिर शिरोरेखा खींचना लेखन में अधिक समय लेता है, रोमन और उर्दू में नहीं होता। 'र' के एक से अधिक प्रकार का होना, जैसे- रात, प्रकार, कर्म, राष्ट्र।
अत: यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की अपेक्षा अच्छी मानी जा सकती है, जिसमें कुछ सुधार की आवश्यकता महसूस होती है जैसे- वर्णों के लिखावट में सुधार की आवश्कता है क्योंकि 'रवाना' लिखने की परम्परा में सुधार हो कर अब 'खाना' इस तरह से लिखा जाने लगा है। इसी तरह से लिखने के पश्चात हमें शिरोरेखा पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जैसे- 'भर' लिखते समय हमें शिरोरेखा थोड़ा जल्द बाजी कर दे तो 'मर' पढ़ा जाएगा। इन छोटी-छोटी बातों पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
संदर्भ-
डॉ. तिवारी भोलानाथ, हिंदी भाषा की लिपि संरचना, साहित्य सहकार दिल्ली
प्रो. त्रिपाठी सत्यनारायण हिंदी भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
वराणसी, चतुर्थ संस्करण 2006
(लेख-अम्ब्रीश त्रिपाठी )

सोमवार, 21 दिसंबर 2009

मन्नू राय की कुछ कविताएं

चाहत
(वर्तमान साहित्य,फ़रवरी २००९ में प्रकाशित)
चाहत………………….।
नील गगन में उड़ जाऊं…..।
छोड़कर वह आशियाना
जो जिम्मेवार है
सहोदर से झगड़ने का।
छोड़कर वह धरा
जो जिम्मेवार है
महाभारत का
जहॉं सहस्त्रों ऋषियों ने
पायी मुक्ति।
अफसोस……
परविहीन, आशियाना
छोड़ नहीं सकता
उड़ने में असमर्थ।
मॉं-पिता का स्नेह
पत्नी का प्यार
बहन की राखी का
प्रेम का वह डोर,
सदा के लिए
जिसमें कैद।
किरण उम्मीद की
(वर्तमान साहित्य,फ़रवरी २००९ में प्रकाशित)
मेघ को देखकर
बंधी थी एक उम्मीद
धरा तृप्त होगी प्यास से
खेत में चलेंगे हल
सहेज कर रखे बीज
एक उम्मीद की
जिससे तय होता है
मेरा भविष्य
दो जून की रोटी का बंदोबस्त
मेघदूत का दया हुआ
महिनों पानी बरसता रहा
फसल सारी डूब गई
बच्चों के स्कूल में अवकाश
बाजार जाने को रहा नहीं
दो छंटाक अन्न को पकाने का
सूखी लकड़ी नहीं
उपवास का क्रम जारी
भींगने से बच्चा बीमार
भैंस पड़वा को जन्मी
रूठ कर पत्नी चली गई मायके
पुस्तैनी कच्ची मिट्टी
का खपरैला मकान
का गिरना, इसी क्रम में था
जीवित था मैं, एक उम्मीद का
किरण लिये।
साभार मन्नू राय और वर्तमान साहित्य

कुछ कविताएं

हमारे मित्र मन्नू राय की कुछ कविताएं हैं जिन्हें पढ़ने के बाद, आज के दौर में जब हर तरफ कुछ अजीब –सा लगता है, ये कविताएं आपको जरूर प्रासंगिक लगेंगी।
पहचाने कैसे
दोनों के चेहरे
एक-से हैं।
सच, सच है
सच की तरह।
झूठ, झूठ भी है
झूठ की तरह।
दोनों के चेहरे हैं
एक जैसे।
इन दोनों को
कोई पहचाने कैसे ?

नया इंकलाब लाओ यारों !
पुराना इंकलाब छोड़ो
नया इंकलाब लाओ यारों,
जो रह गये हैं बेहिसाब
उनका हिसाब दिला दो यारों।

सोमवार, 14 सितंबर 2009

हिन्दी दिवस पर हमारे मित्र मनीष के शब्द

जिस देश की राष्ट्रभाषा हिन्दी हो उस देश में एक दिन (१४ सितंबर) हिन्दी दिवस के रुप में मनाने की एक औपचारिक परम्परा की नींव एक प्रायोजित रुप से उनके द्वारा डाल दी गई जिनकी शिक्षा-दीक्षा oxford और cambridge में संपन्न हुई तथा उनकी औलाद भी देश-विदेश के अंग्रेजी शिक्षण-संस्थाओं से पढ़े-बढ़े हैं।
यह एक सुनियोजित शैक्षिक और भाषाई राजनीति है ताकि एक खास वर्ग, समुदाय, पीढ़ी की उन्नति हो और निम्नमध्य वर्गीय समुदाय उस खास वर्ग द्वारा फैलाई शैक्षिक, राजनैतिक, आर्थिक,औद्योगिक, तकनीकी विसातों पर मोहरा बन सकें और अपने जीवन को धन्य-धन्य हो सकें ।
इसकी सबसे बड़ी मिसाल तो यही है कि आज भी हमारे यहां लगभग सारी अच्छी किताबें english में ही उपलब्ध हैं जबकि होना ये चाहिए था कि सारे भारतीय भाषाओं का भी हिन्दी- अनुवाद करना चाहिए था ताकि एक परिनिष्ढित हिन्दी का विकास पुरे भारत में होता ....
शेष फिर कभी

गुरुवार, 13 अगस्त 2009

अक्षर-राग

केदारनाथ सिंह जी की एक कविता है जो देवनागरी लिपि पर लिखी गई है, काफी प्रशंसनीय है। यह कविता बडे़ ही रोचक ढंग से प्रस्तुत की गई है। आप भी पढें और इसकी गहराई में जाकर कुछ टिप्पणी करें।
केदारनाथ सिंह जी का आभार मानते हुए प्रस्तुत है उनकी कविता-

अक्षर-राग

यह जो मेरी लिपि है देवनागरी
उसे कभी-कभी अपने नाम पर
शक होता है
शक होता है इसे भाषाविदों की
बहुत-सी बातों पर...........

और यद्यपि
यह भूल चुकी है अपना सारा अतीत
यहॉं तक कि इसे अपना घर
गॉंव
टोला-टपरा
कुछ भी याद नहीं
पर लिखते समय
इसके शब्दों के पीछे मैंने अक्सर देखा है
एक लहूलुहान-सा निरक्षर हाथ
जो संभाले रहता है
इसके हर अक्षर को

कभी अंधेरे में
झॉंककर तो देखो मेरी इस सीधी- सादी लिपि के
अक्षरों के भीतर
तुम्हें वहॉ दिखाई पड़ेगा
किसी धुंआ भरी ढिबरी का
धीमा-धीमा उजास
और हो सकता है किसी खड़ी पाई के नीचे
कहीं सटा हुआ दिख जाए
किसी लिखते-लिखते थक गये हाथ के-
नाखूनों की कोरों तक छलक आया खून भी

मेरा अनुमान है
'' कुल्हाड़ी से पहले
नहीं आया था दुनिया में
और '' या '' तो इतने दमदार हैं
कि जैसे फूट पड़े हों सीधे
किसी पत्थर को फोड़कर
हां - हमारे स्पर्श में यह जो '' है
लगता है जैसे छिटक पड़ा हो
किसी चुंबन के ताप से

अगर ध्यान से देखो
तो लिपियों में बंद है
आदमी के हाथ का सारा इतिहास
मुझे हर अक्षर
किसी हाथ की बेचैनी का
आईना लगता है
मैं जब भी देखता हूं कोई अपरिचित लिपि
मेरा हाथ छटपटाने लगता है
उससे मिलने के लिये
और चीनी चित्रलिपि तो
धरती के गुरूत्व की तरह खींचती है
मेरी उंगलियों को
और मैं अपने सारे अज्ञान के साथ
घुसना चाहता हूॅं
उसके हर चित्र की बनावट के भीतर
जेसै घुसा होगा खान में
पृथ्वी का सबसे पहला आदमी

और अब यह कैसे बताऊँ
पर छिपाऊँ भी तो क्यों
कि मैं जो चला था बरसों पहलें
एक छाटे- से '' की ऊँगली पकड़कर
आज तक एक स्लेट में
चक्कर लगा रहा हूं
'' तक पहुंचने के लिए।