सोमवार, 3 नवंबर 2008

राष्ट्रीय भाषा का विचार

हिन्द स्वराज (1909),पेज 124 में राष्ट्रीय भाषा का विचार
"हरेक पढे-लिखे हिन्दुस्तानी को अपनी भाषा का, हिन्दू को संस्क्ऋत का, मुसलमान को अरबी का, पारसी को पर्शियन का और सबको हिन्दी का ज्ञान होना चाहिएकुछ हिन्दुओं को अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसीयों को संस्क्ऋत सीखनी चाहिए। उत्तर और पश्चिम में रहने वाले हिन्दुस्तानी को तमिल सीखनी चाहिए। सारे हिन्दुस्तान के लिए तो हिन्दी ही होनी चाहिए। उसे उर्दू या नागरी लिपि में लिखने की छूट रहनी चाहिए। हिन्दू और मुसलमानों के विचारों को ठीक रखने के लिए बहुतेरे हिन्दुस्तानियों का दोनों लिपियां जानना जरुरी है। ऎसा होने पर हम अपने आपस के व्यवहार में से अंग्रेजी को निकाल बाहर कर सकेंगे।"
21-01-1920 के 'यंग इंडिया' में ' अपील टु मद्रास ' नाम के लेख में गांधीजी ने राष्ट्रभाषा की व्याख्या (पेज 16) की थी-
" मैं सोच - समझ कर इस नतिजे पर पहुंचा हूं कि राष्ट्र के कार - बार के लिए या विचार - विनिमय के लिए हिन्दुस्तानी को छोडकर दूसरी कोई भाषा शायद ही राष्ट्रीय माध्यम बन सके। (हिन्दुस्तानी यानी हिन्दी और उर्दू के मिलाप से पैदा होने वाली भाषा।) श्रोत - राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी : गांधीजी अनुवादक - काशीनाथ त्रिवेदी
वैसे देखा जाए तो आज के सदी के लिए ये बातें बहुत अजीब हैं क्योंकि आज हिन्दी और अंग्रेजी को ही जनता ज्यादा तवज्जो देती है इसलिए कि भूमंडलीकरण के इस दौर में अंतरराष्ट्रीय संबंध के लिए अंग्रेजी को महत्व दिया जाता है यह जानते और कहते हुए कि हिन्दी विश्व की सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा में अंग्रेजी से उपर है।
गांधीजी के समय में राष्ट्रभाषा के लिए हिन्दी या हिन्दुस्तानी की बात की जाती थी इसपर एक चर्चा 12-10-1947 को हरिजनसेवक में प्रकाशित हुई थी -
सवाल - हमारी राष्ट्रभाषा क्या होगी ? हिन्दी या हिन्दुस्तानी ?
जवाब - अगर हम सांप्रदायिक दृ्ष्टिकोण छोड. दें और साईंस की नजर से इस सवाल पर विचार करें, तो हम खुद ही इस नतीजे पर पहुंचेंगे कि हिन्दुस्तानी को ही राष्ट्रभाषा बनाने में हमारा हित है। वह न तो संस्कृत शब्दों से लदी हिन्दी हो, न फा़रसी शब्दों से लदी उर्दू, बल्कि इन दोनों जबानों का सुन्दर मेल हो। उसमें अलग - अलग प्रान्तीय भाषाओं और विदेशी भाषा के शब्द भी ,उनके अर्थ, मिठास या संबंध की दृष्टि से आजा़दी के साथ शामिल किए जायें, बशर्ते कि वे हमारी राष्ट्रभाषा में पूरी तरह घुलमिल सकते हों। सिर्फ हिन्दी या उर्दू तक अपने को सीमित रखना समझदारी और राष्ट्रीयता के खिलाफ़ गुनाह करना होगा। अंग्रेजी भाषा दुनिया की सारी भाषाओं से सिर्फ इसलिए धनवान है कि उसने सभी भाषाओं से शब्द उधार लिए हैं। अगर अंग्रेजी में इटली, ग्रीस, जर्मनी वगैरह की भाषाओं के शब्द लिए जा सकते हैं , तो व्याकरण की दृष्टि से कोई फेरफार किए बगैर हम अपनी भाषा में अरबी - फा़रसी के शब्द लेने में क्यों हिचकिचायें ? साथ ही हमें दो लिपियां सीखने से क्यों घबराना चाहिए? (श्रोत - राष्ट्रभाषा हिन्दुस्तानी : गांधीजी अनुवादक - काशीनाथ त्रिवेदी नवजीवन मुद्रणालय, अहमदाबाद)

सोमवार, 15 सितंबर 2008

हिन्दी का हाल और हम

मित्रो !
बहुत दिनों से मैंने अपने ब्लाग पर कोई विचार नहीं डाला इसका मुझे खेद है
दरअसल मै अपने एम.फिल. के शोध में व्यस्त बहुत जल्द अपने इस शोध की मुख्य बातों को भी ब्लाग पर प्रकाशित करूँगा
हिन्दी दिवस को लेकर पिछले कुछ सालों से जमकर बहसें हो रही हैं और खुब सरकारी पैसों का दुरुपयोग हो रहा है, हिन्दी को राजभाषा और राष्ट्रभाषा कहते हुए हिन्दी के प्रख्यात विद्वजनों द्वारा हिन्दी को आगे बढाने के लिये कितने कार्य हुए हैं इसकी समीक्षा कि जाये तो शायद 2-5 प्रतिशत विद्वान ही होंगे, जिन्होंने वाकई कुछ ठोस कार्य किया है
साहित्यिक पत्रिका हंस के संपादक राजेंद्र यादव ने भी कहा है -जैसे 15 अगस्त को झंडा फहरा लेते हैं, दो अक्टूबर को राजघाट जाकर फूल चढ़ाते हैं, उसी तरह का यह भी एक आयोजन है जहाँ हिन्दी की याद लोगों को सिर्फ़ हिन्दी दिवस या इस दौरान होने वाले कार्यक्रमों में ही आती है, बाकी 364 दिन लोग हिन्दी को भूले रहते हैं और इस बारे में बात भी नहीं करते हैं जिस तरह अब राष्ट्रीय पर्वों के आयोजनों में जनता की कोई शिरकत नहीं होती, बस नेता, मंत्री और स्कूलों से लाए गए बच्चे होते हैं, वैसे ही अब सरकारी हिन्दी दिवसों के आयोजनों में भी हो रहा है.लोग आपस में अपनी सार्थकता सिद्ध करने के लिए या ये बताने के लिए कि वो कितने महत्वपूर्ण हैं, इस तरह का आयोजन करते हैं. साल भर हिन्दी पर कोई काम हो या न हो, यह आयोजन ज़रूर हो जाता है.
आज की
हिन्दी जो जीवंत हिन्दी है, वो आज से नहीं, सैकड़ों सालों से बाज़ार में बनी हुई है.
परिवारों में, लोगों में और समाज में हिन्दी का बाज़ार तमाम चुनौतियों के बावजूद हिन्दी को जीवित और जीवंत बनाए हुए है. जाने माने विद्वान सुधीश पचोरी भी हिन्दी के नये रूप का समर्थन करते हैं
मीडिया और फ़िल्मों का इसमें बड़ा योगदान है. भाषा में निरंतर परिवर्तन हो रहा है और होते रहना चाहिए. किसी भी भाषा को बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी होता है.
इसी तरह की बहुत सारी बातों को आज के संदर्भ में देखा जाए तो हिन्दी के इस हाल के जिम्मेदार कहीं न कहीं हम भी हैं जो अपनी हिन्दी को भाव न देकर इंग्लिश या अन्य भाषा को महत्व देते हैं, क्योंकि हमे लगता है कि हम माडर्न तभी कहलायेंगे जब हम हिन्दी के साथ-साथ इंग्लिश का भी प्रयोग करें लेकिन क्या यह इतना जरूरी है कि बिना कारण भी हम इसका प्रयोग करते रहें ठीक है कि कुछ मायने में आज कि स्थिति वैसी नहीं है परंतु हम चाह भी नहीं रहें हैं यह भी कहीं न कहीं सत्य है हमें चाहिए कि हम अपनी हिन्दी को संस्कार के साथ आगे बढाने में अपना योगदान करें

बीबीसी की अचला शर्मा कहती हैं-"जिस गंगा-जमुनी हिंदी के संस्कार मेरी घुट्टी में हैं, जिस हिंदी से मेरे बड़े होने, मेरे पढ़-लिख कर किसी क़ाबिल बनने, मेरे सपनों, मेरी यादों का संबंध है – वह हिंदी कहाँ है? " हिन्दी के अस्तित्व को बचाने के इच्छुक लोगों का एक वर्ग कहता है कि अगर हिन्दी में अँगरेज़ी के मेल को सहज स्वीकार न किया गया तो हिन्दी मर जाएगी. दूसरा पक्ष कहता है कि यह हिन्दी पर बलात्कार है और इससे हिन्दी की मौत निश्चित है. मेरा विचार है कि हिन्दी को अगर ज़िन्दा रहना है तो इन दोनों तरह के हिमायतियों से सावधान रहना होगा.

विमलेशकान्ति वर्मा ने भी कहा है-हिन्दी किसी एक भाषा का नाम नहीं है हिन्दी भाषा समष्टि का नाम है हिन्दी एक बैनर है, जिसमें उत्तर में नेपाल की तराई से लेकर दक्षिण में रायपुर और खण्डवा, पुर्व में भागलपुर और मिथिला से लेकर, पश्चिम में बाडमेर,बीकानेर और जैसलमेर तक आते हैं यह एक बहुत बडा क्षेत्र है इतने बडे क्षेत्र में जो भाषा बोली जाएगी उसमें वैकल्पिक प्रयोग होंगे ही होंगे

सोमवार, 17 मार्च 2008

जनसंचार में हिन्दी

व्यक्ति और समाज के बीच संबंध स्थापित करना और एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति/व्यक्तियों तथा एक समाज से दूसरे समाज/समाजों के बीच विचारों आदान-प्रदान के लिये संचार, सेतु का काम करता है संचार व्यक्ति तथा समाज का सहज स्वभाव है
मनुष्य के जीवन में यह कला सबसे प्राचीन और मौलिक रुप में रही हैएक बच्चा पैदा होते ही अपने रोने कि आवाज के साथ अपने आगमन की सूचना दे देता है उसका रोना चिल्लाना उसके संचार के भावों की ही अभिव्यक्ति है इंसान में यह प्रव्ऋति आदिम काल से रही है
संचार एक मूलभूत वैयक्तिक एवं सामाजिक आवश्यकता तथा सार्वभौमिक मानवाधिकार हैइसके बिना जीवन अर्थहीन और उद्देश्यहीन हो जाता है संचार के बिना जीवन में संपुर्णता नहीं होती, इसके बिना किसी समुदाय या मानव गरिमा की स्थापना की कल्पना भी नहीं की जा सकती है समय के साथ जैसे-2 मनुष्य का विकास होता गया साथ ही संचार के माध्यम का रुप भी विकसित होता गया संचार की प्रक्रिया समाचार-पत्र, आकाशवाणी और दूरदर्शन के आविष्कार और प्रसार के साथ तेजी से फैलती गई संचार का विस्त्ऋत रुप जनसंचार के नाम से जाना जाता है जिसका मूल व्युत़पतिक अर्थ 'भावों तथा विचारों का सामूहिक आदान-प्रदान है'
जार्ज ए. मिलर ने कहा है " जनसंचार का अर्थ सूचना को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहूँचाना है"(जनसंचार माध़यमों में हिन्दीः चँद्र कुमार, दि. क्लासिकल पब्लि.)

भाषा जनसंचार द्वारा विचारों को संप्रेषित करने का सबसे मुख्य माध्यम है माध्यमों की भाषा अर्थात् प्रयोक्ता जिस भाषा का इस्तेमाल करता है, यदि उस भाषा को श़्रोता या पाठक सहजतापूर्वक समझकर मौखिक या लिखित संप्रेषण स्थापित करतें हैं तो वही भाषा सफल संप्रेषण माध्यम होती है भाषा के बिना जनसंचार का लक्ष्य पुरा नहीं हो सकता, चाहे माध्यम कुछ भी हो इसलिये जनसंचार के सभी माध्यमों के लिये हर युग में किसी न किसी भाषा का उपयोग अनिवार्यतः होता आया है भाषा ने जनसंचार के कार्य को सुगम बनाया है , आकर्षण प्रदान किया है और विस्तार भी दिया है यही कारण है कि हम जनसंचार के सर्वसुलभ साधन के रुप में भाषा का उपयोग करते हैं

हमारे देश की राजभाषा और सबसे बडी संपर्कभाषा हिन्दी है हिन्दी का क्षेत्र बहुत व्यापक है देश के लगभग 11 राज्यों/केन्द्रशासित प्रदेशों में मुख्य रुप से बोली जाने वाली भाषा हिन्दी है देश की जनसंख्या का लगभग 42 प्रतिशत भाग हिन्दी बोलने वालों का है, बाकि भाग में अनेक भाषाएँ हैं और वहाँ भी लोग टूटी-फूटी हिन्दी बोल ही लेते हैं और समझते भी हैं
जनसंचार माध्यमों में हिन्दी भाषा के प्रयोग होने के पिछे हिन्दी का व्यापक क्षेत्र ही है इसी व्यापक क्षेत्र को ध्यान में रखकर इन माध्यमों द्वारा हिन्दी का प्रयोग हो रहा है उदारीकरण, भूमंडलीकरण,व्यावसायीकरण के युग की शुरुआत के साथ ही उपभोक्तावाद का भी जन्म हुआ और उपभक्ताओं को लुभाने के लिये व्यापार को जनसंचार माध्यमों के साथ जोड दिया गया

सोमवार, 3 मार्च 2008

गुरुवार, 02 नवंबर, 2006 को 16:40 GMT तक के samachar


अंग्रेज़ी पर गर्व और हिंदी पर शर्म?

सलमा ज़ैदीसंपादक, बीबीसी हिंदी डॉट कॉम



क्या नई पीढ़ी हिंदी का क ख ग भी पढ़ पाएगी?
विदेश में कोई भारतीय चेहरा नज़र आता है तो एक अपनेपन का अहसास होता है.
हालाँकि लंदन में यह महसूस होता ही नहीं कि आप भारत से बाहर हैं लेकिन अन्य यूरोपीय देशों में बसे भारतीय दोस्तों से जब बात होती है तो उनसे यही सुनने को मिलता है.
अकसर ट्रेन में आते-जाते सामने बैठे भारतीयों को देख कर दिल जितना ख़ुश होता है, उन्हें आपस में अंग्रेज़ी में बात करते देख कर उतनी ही निराशा भी होती है.
मैं यह नहीं कहती कि हर भारतीय की मातृभाषा हिंदी ही है और वे उसे फ़र्राटे से बोल लेते हैं लेकिन मैं बात कर रही हूँ उन हिंदी भाषियों की जिन्हें हिंदी बोलने में झिझक महसूस होती है.
ऐसा कई बार हुआ कि मैंने किसी उत्तर भारतीय से हिंदी में सवाल किया और जवाब अंग्रेज़ी में मिला.
सोचते किस भाषा में हैं?
बहुत से फ़िल्मी सितारे लंदन आते रहते हैं. उनमें से बहुत कम हैं जो सहजता से हिंदी बोल पाते हों.
जो भाषा आपको रोज़ी-रोटी मुहैया करा रही है उससे ऐसी विमुखता?
लेकिन बात विदेश की ही क्यों क्या भारत में ऐसा नहीं है?
राजधानी या शताब्दी एक्सप्रेस से सफ़र करते हुए जब मैंने हिंदी अख़बार की मांग की तो अटेंडेंट को जाकर मेरे लिए अख़बार लाना पड़ा.
आज़ादी के साठ साल बाद आज भी अंग्रेज़ी बोलना गर्व और हिंदी बोलना शर्म की बात क्यों है?
क्या आने वाली पीढ़ी हिंदी के समृद्ध साहित्य से परिचित भी हो पाएगी? हम अपने बच्चों को इस विराट विरासत से महरूम क्यों कर रहे हैं?

ye lekh bbchindi.com par prakasit hua tha

मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बुधवार, 30 जनवरी, 2008 को bbc par prakasit क्या थे महात्मा गांधी के अंतिम शब्द!

क्या थे महात्मा गांधी के अंतिम शब्द!

महात्मा के विचारों को आज भी प्रासंगिक माना जाता है
साठ साल पहले 30 जनवरी, 1948 के ही दिन दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे महात्मा गाँधी के पैर छूने के लिए झुका.... और जब उठा तो उसने एक के बाद एक तीन गोलियाँ महात्मा के सीने में दाग़ दीं थीं.
अब तक माना जाता है कि गोली लगने के बाद बापू 'हे राम!' कहते हुए गिरे थे और यह शब्द उनके पास चल रही उनकी पोती आभा ने सुने थे.
लेकिन एक नई पुस्तक 'महात्मा गांधी: ब्रह्मचर्य के प्रयोग' में बापू के अंतिम शब्द ‘हे राम’ पर सवाल उठाया गया है.
पत्रकार दयाशंकर शुक्ल सागर की पुस्तक में दावा किया है कि 30 जनवरी, 1948 को गोली लगने के बाद महात्मा गांधी के मुख से निकलने वाले अंतिम शब्द ‘हे राम’ नहीं थे.
पुस्तक के अनुसार 30 जनवरी, 1948 को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मारी थी तो बापू के सबसे क़रीब उनकी पौत्र वधु मनु गांधी थीं.
उन्होंने बापू के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिया था इसलिए मान लिया गया कि उनके अंतिम शब्द ‘हे राम’ थे.
नई पुस्तक में कहा गया है कि मनु के दिमाग में ये शब्द इसलिए आए क्योंकि उनके अवचेतन मन में नोआखली में महात्मा गांधी की कही हुई यह बात गूंज रही थी कि '' यदि मैं रोग से मरूँ तो मान लेना कि मै इस पृथ्वी पर दंभी और रावण जैसा राक्षस था. मैं राम नाम रटते हुए जाऊं तो ही मुझे सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा महात्मा मानना.''
अलग-अलग राय
किताब के अनुसार महात्मा गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल का भी मानना था कि गांधीजी ने मूर्छित होते समय जो शब्द निकले थे वे 'हे राम' नहीं थे.
उनका कहना था कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द 'राम राम' थे. ये कोई आह्वान नहीं था बल्कि सामान्य नाम स्मरण था.
समाचार एजेंसी भाषा से बातचीत में जानी-मानी गांधीवादी निर्मला देशपांडे ने इस बात से असहमति जताई है.
निर्मला गांधी का कहना था कि उस शाम बापू जब बिड़ला मंदिर में प्रार्थना के लिए जा रहे थे तब उनके दोनों ओर आभा और मनु थीं. आभा बापू की पौत्री और मनु उनकी पौत्रवधु थीं.
निर्मला गांधी का कहना है कि जब बापू को गोली लगी थी तब उनके हाथ आभा और मनु के कंधों पर थे.
गोली लगने के बाद वे आभा की ओर गिरे थे. आभा ने स्पष्ट सुना था कि बापू के मुंह से आख़िरी बार ‘हे राम’ ही निकला था.

bbc पर की बात हिन्दी

बीबीसी हिंदी सेवा का जन्म 1940 में हुआ था लेकिन उस ज़माने में उसका नाम था 'हिंदुस्तानी सर्विस' और पहले संचालक थे ज़ेड. ए. बुख़ारी.
आम जन की नज़र में 'हिंदुस्तानी' हिंदी और उर्दू की सुगंध लिए एक मिली जुली सादा ज़बान का नाम था, जो भारत की गंगा जमुनी सभ्यता का प्रतीक थी. यही गंगा जमुनी भाषा, बीबीसी की आज की हिंदी का आधार बनी.

विश्व युद्ध का ज़माना था. ब्रितानी फ़ौज में हिंदू भी थे और मुसलमान भी. उनकी बोलचाल की भाषा एक ही थी-हिंदुस्तानी. हालाँकि हिंदुस्तानी सर्विस नाम के जन्म की कहानी का एक राजनीतिक पहलू भी है.
मार्च 1940 में बुख़ारी साहब ने एक नोट लिखा जिसका विषय था 'हमारे कार्यक्रमों में किस तरह की हिंदी का इस्तेमाल होगा.' इस नोट में एक जगह उन्होंने लिखा—
"भारत में हाल की राजनीतिक घटनाओं और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की अपेक्षाओं के बीच, दूसरे शब्दों में, इन संकेतों के बीच कि स्वतंत्र भारत की सत्ता बहुसंख्यकों के हाथ में होगी, हिंदुओं ने अपनी भाषा से अरबी और फ़ारसी के उन तमाम शब्दों को निकालना शुरू कर दिया है जो मुसलमानों की देन थे. दूसरी तरफ़ मुसलमानों ने उर्दू में भारी भरकम अरबी-फ़ारसी शब्दों को भरना शुरू कर दिया है".

"पहले की उर्दू में हम कहते थे- मौसम ख़राब है. लेकिन काँग्रेस की आधुनिक भाषा में या मुसलिम लीग की आज की ज़बान में यूँ कहा जाएगा- मौसमी दशाएँ प्रतिकूल हैं या मौसमी सूरतेहाल तशवीशनाक है.…..हम अपने प्रसारणों को दो वर्गों में रख सकते हैं".
"पहला- अतिथि प्रसारक जिनकी भाषा पर हमारा कोई बस नहीं क्योंकि आप बर्नार्ड शॉ की शैली नहीं बदल सकते. दूसरे वर्ग में हमारे अपने प्रसारक आते हैं जिनकी भाषा में मौसम खराब हो सकता है, मौसमी दशाएँ प्रतिकूल नहीं होंगी. काँग्रेस ने हिंदुस्तानी नाम उस भाषा को दिया था जिसमें हम कहते हैं- मौसम ख़राब है".

ये तथ्य बी बी सी हिन्दी के अंक से लिया web addrs- bbchindi.com

गुरुवार, 10 जनवरी 2008

apki salaah

welcome friends,
barityahindi blog par aapka swagat hai
ye hindi roman font me rahe to kisa hoga?
apni rai bheje