शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

पूर्वांचलीय भाषा, हिंदी और देवनागरी लिपी

देवनागरी लिपि की विशेषता


सर्वप्रथम हम देवनागरी के इतिहास पर एक नजर डालेंगे। डॉ. द्वारिका प्रसाद सक्सेना के अनुसार सर्वप्रथम देवनागरी लिपि का प्रयोग गुजरात के नरेश जयभट्ट (700-800 ई.) के शिलालेख में मिलता है। आठवीं शताब्दी में चित्रकूट, नवीं में बड़ौदा के ध्रुवराज भी अपने राज्यादेशों में इस लिपि का उपयोग किया करते थे। समूचे विश्व में प्रयुक्त होने वाली लिपियों में देवनागरी लिपि की विशेषता सबसे भिन्न है। अगर हम रोमन, उर्दू लिपि से इसका तुलनात्मक अध्ययन करें तो देवनागरी लिपि इन लिपियों से अधिक वैज्ञानिक है। रोमन और उर्दू लिपियों के स्वर-व्यंजन मिले-जुले रूप में रखे गए हैं, जैसे- अलिफ़, बे; ए, बी, सी, डी, ई, एफ आदि।
दोनों लिपियों की तुलना में देवनागरी में इस तरह की अव्यवस्था नहीं है, इसमें स्वर-व्यंजन अलग-अलग रखे गए हैं। स्वरों के हृस्व-दीर्घ युग्म साथ-साथ रहते हैं, जैसे- अ-आ, इ-ई, उ-ऊ। इन स्वरों के बाद संयुक्त स्वरों की बात करते हैं इनको भी इस लिपि में अलग से रखा जाता है, जैसे- ए,ऐ,ओ,औ,।
देवनागरी के व्यंजनों की विशेषता इस लिपि को और वैज्ञानिक बनाती है, जिसके फलस्वरूप क,च,ट,त,प, वर्ग के स्थान पर आधारित है और हर वर्ग के व्यंजन में घोषत्व का आधार भी सुस्पष्ट है, जैसे- पहले दो व्यंजन (च,छ) अघोष और शेष तीन व्यंजन (ज,झ,ञ) घोष होते हैं। देवनागरी व्यंजनों को हम प्राणत्व के आधार पर भी समझ सकते हैं, जैसे- प्रथम, तृतीय और पंचम व्यंजन अल्पप्राण और द्वितीय और चतुर्थ व्यंजन महाप्राण होता है। इस तरह का वर्गीकरण और किसी और लिपि व्यवस्था में नहीं है।
देवनागरी की कुछ और महत्तवपूर्ण विशेषता निम्नवत् हैं -
1) लिपि चिह्नों के नाम ध्वनि के अनुसार- इस लिपि में चिह्नों के द्योतक उसके ध्वनि के अनुसार ही होते हैं और इनका नाम भी उसी के अनुसार होता है जैसे- अ, आ, ओ, औ, क, ख आदि। किंतु रोमन लिपि चिह्न नाम में आई किसी भी ध्वनि का कार्य करती है, जैसे- भ्(अ) ब्(क) ल्(य) आदि। इसका एक कारण यह हो सकता है कि रोमन लिपि वर्णात्मक है और देवनागरी ध्वन्यात्मक।
2) लिपि चिह्नों की अधिकता - विश्व के किसी भी लिपि में इतने लिपि प्रतीक नहीं हैं। अंग्रेजी में ध्वनियाँ 40 के ऊपर है किंतु केवल 26 लिपि-चिह्नों से काम होता है। 'उर्दू में भी ख, घ, छ, ठ, ढ, ढ़, थ, ध, फ, भ आदि के लिए लिपि चिह्न नहीं है। इनको व्यक्त करने के लिए उर्दू में 'हे' से काम चलाते हैं' इस दृष्टि से ब्राह्मी से उत्पन्न होने वाली अन्य कई भारतीय भाषाओं में लिपियों की संख्याओं की कमी नहीं है। निष्कर्षत: लिपि चिह्नों की पर्याप्तता की दृष्टि से देवनागरी, रोमन और उर्दू से अधिक सम्पन्न हैं।
3) स्वरों के लिए स्वतंत्र चिह्न - देवनागरी में ह्स्व और दीर्घ स्वरों के लिए अलग-अलग चिह्न उपलब्ध हैं और रोमन में एक ही (।) अक्षर से 'अ' और 'आ' दो स्वरों को दिखाया जाता है। देवनागरी के स्वरों में अंतर स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
4) व्यंजनों की आक्षरिकता - इस लिपि के हर व्यंजन के साथ-साथ एक स्वर 'अ' का योग रहता है, जैसे- च्+अ= च, इस तरह किसी भी लिपि के अक्षर को तोड़ना आक्षरिकता कहलाता है। इस लिपि का यह एक अवगुण भी है किंतु स्थान कम घेरने की दृष्टि से यह विशेषता भी है, जैसे- देवनागरी लिपि में 'कमल' तीन वर्णों के संयोग से लिखा जाता है, जबकि रोमन में छ: वर्णों का प्रयोग किया जाता है!
5) सुपाठन एवं लेखन की दृष्टि- किसी भी लिपि के लिए अत्यन्त आवश्यक गुण होता है कि उसे आसानी से पढ़ा और लिखा जा सके इस दृष्टि से देवनागरी लिपि अधिक वैज्ञानिक है। उर्दू की तरह नहीं, जिसमें जूता को जोता, जौता आदि कई रूपों में पढ़ने की गलती अक्सर लोग करते हैं।
देवनागरी के दोष -
देवनागरी के चारों ओर से मात्राएं लगना और फिर शिरोरेखा खींचना लेखन में अधिक समय लेता है, रोमन और उर्दू में नहीं होता। 'र' के एक से अधिक प्रकार का होना, जैसे- रात, प्रकार, कर्म, राष्ट्र।
अत: यह कहा जा सकता है कि देवनागरी लिपि अन्य लिपियों की अपेक्षा अच्छी मानी जा सकती है, जिसमें कुछ सुधार की आवश्यकता महसूस होती है जैसे- वर्णों के लिखावट में सुधार की आवश्कता है क्योंकि 'रवाना' लिखने की परम्परा में सुधार हो कर अब 'खाना' इस तरह से लिखा जाने लगा है। इसी तरह से लिखने के पश्चात हमें शिरोरेखा पर विशेष ध्यान देना चाहिए, जैसे- 'भर' लिखते समय हमें शिरोरेखा थोड़ा जल्द बाजी कर दे तो 'मर' पढ़ा जाएगा। इन छोटी-छोटी बातों पर हमें विशेष ध्यान देना चाहिए।
संदर्भ-
डॉ. तिवारी भोलानाथ, हिंदी भाषा की लिपि संरचना, साहित्य सहकार दिल्ली
प्रो. त्रिपाठी सत्यनारायण हिंदी भाषा और लिपि का ऐतिहासिक विकास, विश्वविद्यालय प्रकाशन,
वराणसी, चतुर्थ संस्करण 2006
(लेख-अम्ब्रीश त्रिपाठी )