गुरुवार, 23 जुलाई 2009

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी का स्वरूप

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी का स्वरूप
(विज्ञापनों के विशेष संदर्भ में)

एम.फिल. में प्रस्तुत किए गए शोध-प्रबंध का सारलेख

हिन्दी का रूप पत्रकारिता में शुरू से बदलता रहा है। खड़ी बोली से शुरू हुई हिन्दी हिन्दुस्तानी से लेकर हिंग्लिश तक परिवर्तित हुई है जो आगे पता नहीं किस रूप में आ जाए। इससे लगता है कि हर ज़माने की अपनी एक फैशनेबल भाषा रही है जिसमें नए शब्द जुड़ते रहे हैं और संरचना भी बदलती रही है।वास्तव में भाषा का विकास उसके नई संरचनाओं से ही संभव है। इसलिए हर युग में भाषा के रूढ़िपरक और अप्रचलित रूप को त्याग दिया जाता है। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं की भाषा के विकास और उसमें गतिशीलता लाने के लिए भाषा की प्रकृति को बिगाड़ दिया जाए या दूसरी भाषा के रूपों को व्यवहार में लाया जाए। भाषा के विकास के लिए प्रयोगशीलता जरूरी है। लेकिन यह संदर्भ से हटकर नहीं हो इसका भी ध्यान रखना चाहिए। इस प्रयोगशीलता को कौन बनेगा करोड़पति- 1 से 3 तक में अच्छी तरह समझा जा सकता है। देखा जाए तो जनसंचार माध्यमों की यह भाषा, भाषा के शास्त्र और लोकभाषा के बीच का द्वन्द्व है।आज जनसंचार के हर माध्यामों द्वारा प्रयुक्त हिन्दी की संरचना बदलने के पीछे ज्यादातर विद्वानों का मानना है कि यह बदलाव भूमण्डलीकरण और व्यवसायिकता के चलते हो रहा है, क्योंकि हिन्दी एक विशाल क्षेत्र की भाषा है। इतनी विशाल कि जिसमें यूरोप का कोई एक देश समा सकता है। भूमण्डलीकरण/व्यवसायिकता के दौर में विदेशी बाजार इस क्षेत्र के साथ पूरे भारत में छा जाने की कोशिश में रहते हैं और इसके लिए इसका सबसे आसान माध्य्म जनसंचार द्वारा प्रस्तुत विज्ञापन ही हो सकते हैं। इसलिए वे अपने उत्पादों का विज्ञापन हिन्दी में करवा कर लाभ कमाना चाहते हैं। साथ ही उत्पाद को अंतरराष्ट्रीय बताने के लिए हिन्दी में प्रयोग कर मिश्रित भाषा बना देते हैं ताकि उपभोक्ता आकर्षित हों। इस तरह के प्रयोग से हिन्दी की संरचना तो बदलती ही है, वाक्यों में भी व्याकरणिक त्रुटियाँ आ जाती हैं। इतना होने के बाद भी विज्ञापनों की भाषा लोकप्रिय बनी है जिसे हम नकार नहीं सकते, जैसे- ये दिल माँगे more, पप्पू pass हो गया आदि। इसी लोकप्रियता को अन्य माध्यमों मे अपने-अपने तरीके से भुनाया, जैसे- फिल्मों के गाने, न्यूज़ चैनलों की भाषा, टी.वी. सीरियलों के डायलॉग। इसे समाज ने अपनाया भी है।जनसंचार के विभिन्न माध्यमों द्वारा प्रयुक्त हिन्दी को लेकर आज के जाने-माने पत्रकार ‘प्रभाष जोशी’ कह्ते हैं(साक्षात्कार,बहुवचन अंक-17)- “बिना व्याकरण के कोई भाषा नहीं होती लेकिन व्याकरण कहीं बाहर से नहीं, उसी भाषा का होता है।” पाणिनी ने व्याकरण को बताते हुए लिखा है कि लोग जो बोलते हैं, वही अंतिम कसौटी होती है। इसलिए लिखित भाषा में तो व्याकरण रहेगा, लेकिन बोली में जो भाषा का संस्कार होता है, वह अलग-अलग सवालों पर अलग-अलग क्षेत्रों में अलग-अलग व्यक्तियों पर निर्भर करता है। व्याकरण कोई थोपने की चीज़ नहीं है, क्योंकि भाषा की अंतिम ताकत उसकी रवानगी होती है। तो भाषा किसी व्याकरण से बंधी कैसे रह सकती है?संचार माध्यमों की हिन्दी (खासकर विज्ञापन की हिन्दी) भी आज व्याकरण से बंधी नहीं रह गई है। इसलिए आज इसके विविध रूप दिखते हैं, जिसमें दूसरी भाषाओं का समावेश होता नज़र आ रहा है। लेकिन इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि हिन्दी का स्वरूप भले ही बदला हो, केन्द्र में हिन्दी है और हिन्दी ही रहेगी। आज भले ही मिश्रित रूप में हैं, कल फिर हिन्दी हो जाएगी। माध्यम, लेखकों की सजकता और आस्था की जरुरत है।