केदारनाथ सिंह जी की एक कविता है जो देवनागरी लिपि पर लिखी गई है, काफी प्रशंसनीय है। यह कविता बडे़ ही रोचक ढंग से प्रस्तुत की गई है। आप भी पढें और इसकी गहराई में जाकर कुछ टिप्पणी करें।
केदारनाथ सिंह जी का आभार मानते हुए प्रस्तुत है उनकी कविता-
’अक्षर-राग’
यह जो मेरी लिपि है देवनागरी
उसे कभी-कभी अपने नाम पर
शक होता है
शक होता है इसे भाषाविदों की
बहुत-सी बातों पर...........
और यद्यपि
यह भूल चुकी है अपना सारा अतीत
यहॉं तक कि इसे अपना घर
गॉंव
टोला-टपरा
कुछ भी याद नहीं
पर लिखते समय
इसके शब्दों के पीछे मैंने अक्सर देखा है
एक लहूलुहान-सा निरक्षर हाथ
जो संभाले रहता है
इसके हर अक्षर को
कभी अंधेरे में
झॉंककर तो देखो मेरी इस सीधी- सादी लिपि के
अक्षरों के भीतर
तुम्हें वहॉ दिखाई पड़ेगा
किसी धुंआ भरी ढिबरी का
धीमा-धीमा उजास
और हो सकता है किसी खड़ी पाई के नीचे
कहीं सटा हुआ दिख जाए
किसी लिखते-लिखते थक गये हाथ के-
नाखूनों की कोरों तक छलक आया खून भी
मेरा अनुमान है
'क' कुल्हाड़ी से पहले
नहीं आया था दुनिया में
और 'ट' या 'ठ' तो इतने दमदार हैं
कि जैसे फूट पड़े हों सीधे
किसी पत्थर को फोड़कर
हां - हमारे स्पर्श में यह जो 'श' है
लगता है जैसे छिटक पड़ा हो
किसी चुंबन के ताप से
अगर ध्यान से देखो
तो लिपियों में बंद है
आदमी के हाथ का सारा इतिहास
मुझे हर अक्षर
किसी हाथ की बेचैनी का
आईना लगता है
मैं जब भी देखता हूं कोई अपरिचित लिपि
मेरा हाथ छटपटाने लगता है
उससे मिलने के लिये
और चीनी चित्रलिपि तो
धरती के गुरूत्व की तरह खींचती है
मेरी उंगलियों को
और मैं अपने सारे अज्ञान के साथ
घुसना चाहता हूॅं
उसके हर चित्र की बनावट के भीतर
जेसै घुसा होगा खान में
पृथ्वी का सबसे पहला आदमी
और अब यह कैसे बताऊँ
पर छिपाऊँ भी तो क्यों
कि मैं जो चला था बरसों पहलें
एक छाटे- से 'क' की ऊँगली पकड़कर
आज तक एक स्लेट में
चक्कर लगा रहा हूं
'ख' तक पहुंचने के लिए।
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
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