मंगलवार, 29 जनवरी 2008

बुधवार, 30 जनवरी, 2008 को bbc par prakasit क्या थे महात्मा गांधी के अंतिम शब्द!

क्या थे महात्मा गांधी के अंतिम शब्द!

महात्मा के विचारों को आज भी प्रासंगिक माना जाता है
साठ साल पहले 30 जनवरी, 1948 के ही दिन दिल्ली के बिड़ला भवन में नाथूराम गोडसे महात्मा गाँधी के पैर छूने के लिए झुका.... और जब उठा तो उसने एक के बाद एक तीन गोलियाँ महात्मा के सीने में दाग़ दीं थीं.
अब तक माना जाता है कि गोली लगने के बाद बापू 'हे राम!' कहते हुए गिरे थे और यह शब्द उनके पास चल रही उनकी पोती आभा ने सुने थे.
लेकिन एक नई पुस्तक 'महात्मा गांधी: ब्रह्मचर्य के प्रयोग' में बापू के अंतिम शब्द ‘हे राम’ पर सवाल उठाया गया है.
पत्रकार दयाशंकर शुक्ल सागर की पुस्तक में दावा किया है कि 30 जनवरी, 1948 को गोली लगने के बाद महात्मा गांधी के मुख से निकलने वाले अंतिम शब्द ‘हे राम’ नहीं थे.
पुस्तक के अनुसार 30 जनवरी, 1948 को जब नाथूराम गोडसे ने महात्मा गांधी को गोली मारी थी तो बापू के सबसे क़रीब उनकी पौत्र वधु मनु गांधी थीं.
उन्होंने बापू के होठों से अंतिम शब्द ‘हे रा...’ सुनाई दिया था इसलिए मान लिया गया कि उनके अंतिम शब्द ‘हे राम’ थे.
नई पुस्तक में कहा गया है कि मनु के दिमाग में ये शब्द इसलिए आए क्योंकि उनके अवचेतन मन में नोआखली में महात्मा गांधी की कही हुई यह बात गूंज रही थी कि '' यदि मैं रोग से मरूँ तो मान लेना कि मै इस पृथ्वी पर दंभी और रावण जैसा राक्षस था. मैं राम नाम रटते हुए जाऊं तो ही मुझे सच्चा ब्रह्मचारी, सच्चा महात्मा मानना.''
अलग-अलग राय
किताब के अनुसार महात्मा गांधी के निजी सचिव प्यारेलाल का भी मानना था कि गांधीजी ने मूर्छित होते समय जो शब्द निकले थे वे 'हे राम' नहीं थे.
उनका कहना था कि महात्मा गांधी के अंतिम शब्द 'राम राम' थे. ये कोई आह्वान नहीं था बल्कि सामान्य नाम स्मरण था.
समाचार एजेंसी भाषा से बातचीत में जानी-मानी गांधीवादी निर्मला देशपांडे ने इस बात से असहमति जताई है.
निर्मला गांधी का कहना था कि उस शाम बापू जब बिड़ला मंदिर में प्रार्थना के लिए जा रहे थे तब उनके दोनों ओर आभा और मनु थीं. आभा बापू की पौत्री और मनु उनकी पौत्रवधु थीं.
निर्मला गांधी का कहना है कि जब बापू को गोली लगी थी तब उनके हाथ आभा और मनु के कंधों पर थे.
गोली लगने के बाद वे आभा की ओर गिरे थे. आभा ने स्पष्ट सुना था कि बापू के मुंह से आख़िरी बार ‘हे राम’ ही निकला था.

bbc पर की बात हिन्दी

बीबीसी हिंदी सेवा का जन्म 1940 में हुआ था लेकिन उस ज़माने में उसका नाम था 'हिंदुस्तानी सर्विस' और पहले संचालक थे ज़ेड. ए. बुख़ारी.
आम जन की नज़र में 'हिंदुस्तानी' हिंदी और उर्दू की सुगंध लिए एक मिली जुली सादा ज़बान का नाम था, जो भारत की गंगा जमुनी सभ्यता का प्रतीक थी. यही गंगा जमुनी भाषा, बीबीसी की आज की हिंदी का आधार बनी.

विश्व युद्ध का ज़माना था. ब्रितानी फ़ौज में हिंदू भी थे और मुसलमान भी. उनकी बोलचाल की भाषा एक ही थी-हिंदुस्तानी. हालाँकि हिंदुस्तानी सर्विस नाम के जन्म की कहानी का एक राजनीतिक पहलू भी है.
मार्च 1940 में बुख़ारी साहब ने एक नोट लिखा जिसका विषय था 'हमारे कार्यक्रमों में किस तरह की हिंदी का इस्तेमाल होगा.' इस नोट में एक जगह उन्होंने लिखा—
"भारत में हाल की राजनीतिक घटनाओं और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की अपेक्षाओं के बीच, दूसरे शब्दों में, इन संकेतों के बीच कि स्वतंत्र भारत की सत्ता बहुसंख्यकों के हाथ में होगी, हिंदुओं ने अपनी भाषा से अरबी और फ़ारसी के उन तमाम शब्दों को निकालना शुरू कर दिया है जो मुसलमानों की देन थे. दूसरी तरफ़ मुसलमानों ने उर्दू में भारी भरकम अरबी-फ़ारसी शब्दों को भरना शुरू कर दिया है".

"पहले की उर्दू में हम कहते थे- मौसम ख़राब है. लेकिन काँग्रेस की आधुनिक भाषा में या मुसलिम लीग की आज की ज़बान में यूँ कहा जाएगा- मौसमी दशाएँ प्रतिकूल हैं या मौसमी सूरतेहाल तशवीशनाक है.…..हम अपने प्रसारणों को दो वर्गों में रख सकते हैं".
"पहला- अतिथि प्रसारक जिनकी भाषा पर हमारा कोई बस नहीं क्योंकि आप बर्नार्ड शॉ की शैली नहीं बदल सकते. दूसरे वर्ग में हमारे अपने प्रसारक आते हैं जिनकी भाषा में मौसम खराब हो सकता है, मौसमी दशाएँ प्रतिकूल नहीं होंगी. काँग्रेस ने हिंदुस्तानी नाम उस भाषा को दिया था जिसमें हम कहते हैं- मौसम ख़राब है".

ये तथ्य बी बी सी हिन्दी के अंक से लिया web addrs- bbchindi.com