मंगलवार, 29 जनवरी 2008

bbc पर की बात हिन्दी

बीबीसी हिंदी सेवा का जन्म 1940 में हुआ था लेकिन उस ज़माने में उसका नाम था 'हिंदुस्तानी सर्विस' और पहले संचालक थे ज़ेड. ए. बुख़ारी.
आम जन की नज़र में 'हिंदुस्तानी' हिंदी और उर्दू की सुगंध लिए एक मिली जुली सादा ज़बान का नाम था, जो भारत की गंगा जमुनी सभ्यता का प्रतीक थी. यही गंगा जमुनी भाषा, बीबीसी की आज की हिंदी का आधार बनी.

विश्व युद्ध का ज़माना था. ब्रितानी फ़ौज में हिंदू भी थे और मुसलमान भी. उनकी बोलचाल की भाषा एक ही थी-हिंदुस्तानी. हालाँकि हिंदुस्तानी सर्विस नाम के जन्म की कहानी का एक राजनीतिक पहलू भी है.
मार्च 1940 में बुख़ारी साहब ने एक नोट लिखा जिसका विषय था 'हमारे कार्यक्रमों में किस तरह की हिंदी का इस्तेमाल होगा.' इस नोट में एक जगह उन्होंने लिखा—
"भारत में हाल की राजनीतिक घटनाओं और लोकतांत्रिक स्वतंत्रता की अपेक्षाओं के बीच, दूसरे शब्दों में, इन संकेतों के बीच कि स्वतंत्र भारत की सत्ता बहुसंख्यकों के हाथ में होगी, हिंदुओं ने अपनी भाषा से अरबी और फ़ारसी के उन तमाम शब्दों को निकालना शुरू कर दिया है जो मुसलमानों की देन थे. दूसरी तरफ़ मुसलमानों ने उर्दू में भारी भरकम अरबी-फ़ारसी शब्दों को भरना शुरू कर दिया है".

"पहले की उर्दू में हम कहते थे- मौसम ख़राब है. लेकिन काँग्रेस की आधुनिक भाषा में या मुसलिम लीग की आज की ज़बान में यूँ कहा जाएगा- मौसमी दशाएँ प्रतिकूल हैं या मौसमी सूरतेहाल तशवीशनाक है.…..हम अपने प्रसारणों को दो वर्गों में रख सकते हैं".
"पहला- अतिथि प्रसारक जिनकी भाषा पर हमारा कोई बस नहीं क्योंकि आप बर्नार्ड शॉ की शैली नहीं बदल सकते. दूसरे वर्ग में हमारे अपने प्रसारक आते हैं जिनकी भाषा में मौसम खराब हो सकता है, मौसमी दशाएँ प्रतिकूल नहीं होंगी. काँग्रेस ने हिंदुस्तानी नाम उस भाषा को दिया था जिसमें हम कहते हैं- मौसम ख़राब है".

ये तथ्य बी बी सी हिन्दी के अंक से लिया web addrs- bbchindi.com

1 टिप्पणी:

ameet ने कहा…

मुझे लगता है कि हिन्दी अaज सच में हि सभी भाषाओं पर अपना प्रभाव दाल रही है, इसीलिये अब ये एक राष्ट्रीय बहस का ही नहीं बल्कि अंतरराष्ट्रीया बहस का विषय बन गया है |इससे हिन्दी को और भी पोपुलरिटी मिली है जो हम सब किसी न किसी रुप मे देख भी रहे हैं | चाहे संगोष्ठीयों के रुप में ,चाहे विज्ञापनों के रुप में ये कुछ हद तक हिन्दी के प्रसार के लिये तो ठीक है, बोलने के स्तर पर भी ठीक है लेकिन लिखने मे इस तरह की भाषा को स्वीकार करना जरा मुश्किल है| और यही मुख्य बहस का मुद्दा लगता है |